14 अप्रैल डॉ. भीमराव अंबेडकर जयंती : बाबासाहेब के संघर्ष की कहानी, अस्पृश्यता से संविधान तक !

✍️ लेखक: 
knowyourduniya.com टीम
14 अप्रैल 2025

हर वर्ष 14 अप्रैल को देशभर में अंबेडकर जयंती बड़े गर्व और सम्मान के साथ मनाई जाती है। यह दिन केवल एक महापुरुष के जन्म की वर्षगांठ नहीं है, बल्कि यह भारत के सामाजिक पुनर्जागरण, समानता की लड़ाई और संवैधानिक चेतना का प्रतीक है। डॉ. भीमराव अंबेडकर – एक नाम, जिसने इतिहास को बदल दिया और करोड़ों लोगों को सम्मान और अधिकार की आवाज़ दी।

डॉ. भीमराव अंबेडकर : शुरुआती जीवन और संघर्ष

डॉ. भीमराव अंबेडकर
डॉ. भीमराव अंबेडकर
बचपन से भेदभाव तक – एक असमान दुनिया में जन्म

डॉ. भीमराव अंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 को मध्यप्रदेश के महू (अब डॉ. अंबेडकर नगर) में एक महार जाति के परिवार में हुआ। यह वह समय था जब जातिगत भेदभाव अपने चरम पर था, और महार जाति को समाज में “अस्पृश्य” माना जाता था।बचपन से ही उन्हें अस्पृश्यता और सामाजिक भेदभाव का सामना करना पड़ा। स्कूल में उन्हें क्लास के अंदर बैठने की अनुमति नहीं थी, न ही पानी छूने का अधिकार।ये अपमानजनक अनुभव ही उनके जीवन का दिशा-सूचक बन गए।

“हम चाहे जहाँ पैदा हों, लेकिन हमारा भविष्य हमारे विचार और कर्म तय करते हैं।” – डॉ. अंबेडकर

उनके पिता रामजी मालोजी सकपाल ब्रिटिश भारतीय सेना में सूबेदार थे, लेकिन सामाजिक स्तर पर उन्हें और उनके परिवार को समान अधिकार नहीं थे।

शिक्षा में रुकावटें, लेकिन हौसले बुलंद

भीमराव बचपन से ही पढ़ाई में तेज थे, लेकिन स्कूल में उन्हें और उनके जैसे बच्चों को कक्षा के अंदर बैठने की अनुमति नहीं थी। उन्हें पानी तक खुद नहीं छूने दिया जाता था – कोई ऊँची जाति का व्यक्ति ही उन्हें पानी पिलाता।

इन सामाजिक ज़िल्लतों के बावजूद उन्होंने हार नहीं मानी और शिक्षा को ही बदलाव का हथियार बना लिया।

“शिक्षा वह शस्त्र है जिससे समाज को बदला जा सकता है।” – डॉ. अंबेडकर

विदेशी शिक्षा – सपनों की उड़ान

बाबासाहेब ने बॉम्बे विश्वविद्यालय से स्नातक की पढ़ाई पूरी की और फिर एक ऐतिहासिक कदम उठाते हुए 1913 में अमेरिका की कोलंबिया यूनिवर्सिटी गए। वहाँ उन्होंने अर्थशास्त्र, राजनीति और समाजशास्त्र जैसे विषयों पर गहन अध्ययन किया।

इसके बाद वे लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स गए, जहाँ से उन्होंने डॉक्टरेट की डिग्रियाँ प्राप्त कीं। उस समय में एक दलित व्यक्ति का इस स्तर तक पहुँचना एक अभूतपूर्व उपलब्धि थी।

विदेश से लौटने के बाद का सामना – वही जातिवादी भारत

जब बाबासाहेब विदेश से वापस लौटे, तो वे उच्च शिक्षित हो चुके थे, लेकिन भारत आकर उन्हें फिर वही जातिगत भेदभाव और सामाजिक उपेक्षा का सामना करना पड़ा।

उनके अनुभवों ने उन्हें इस बात का एहसास दिलाया कि सिर्फ शिक्षा से नहीं, सामाजिक चेतना और कानूनी अधिकारों से ही समाज बदलेगा। यहीं से शुरू हुआ उनका संघर्ष – सामाजिक समानता और न्याय के लिए जीवन भर का संघर्ष।

डॉ. भीमराव अंबेडकर : अस्पृश्यता के खिलाफ विद्रोह

डॉ. भीमराव अंबेडकर
डॉ. भीमराव अंबेडकर
अस्पृश्यता – वो घाव जो कभी नहीं भुलाया गया

डॉ. अंबेडकर ने बचपन से ही अस्पृश्यता का कड़वा अनुभव किया था। स्कूल में बैठने की अनुमति नहीं, पानी के लिए दूसरों पर निर्भरता, समाज में नीची निगाह से देखे जाना – ये सब उनके जीवन का हिस्सा था। लेकिन उन्होंने इस अपमान को कभी कमजोरी नहीं बनने दिया, बल्कि यही बना उनका संकल्प – एक समान समाज की स्थापना

महाड़ सत्याग्रह (1927) – पानी पर अधिकार की क्रांति

1927 में डॉ. अंबेडकर ने महाराष्ट्र के महाड़ शहर में एक ऐतिहासिक आंदोलन शुरू किया। वहां की नगरपालिका ने ‘अछूतों’ को सार्वजनिक जलकुंड से पानी लेने की अनुमति दी थी, लेकिन ऊँची जातियों ने इसका विरोध किया।

25,000 से ज्यादा दलितों की उपस्थिति में अंबेडकर ने चवदार तालाब से पानी पिया और कहा:

“हमें अब पूछकर नहीं, हक से जीना होगा।”

यह आंदोलन सिर्फ पानी पीने का प्रतीक नहीं था, यह मानवाधिकार और गरिमा की पुनः प्राप्ति का उद्घोष था।

कालाराम मंदिर सत्याग्रह (1930) – धर्म के दरवाज़ों को खटखटाया

नासिक स्थित कालाराम मंदिर में दलितों का प्रवेश वर्जित था। डॉ. अंबेडकर ने इस अन्याय के खिलाफ एक और ऐतिहासिक आंदोलन शुरू किया।

हज़ारों अनुयायियों के साथ उन्होंने मंदिर के बाहर प्रदर्शन किया और यह सवाल उठाया:

“अगर भगवान सबके हैं, तो मंदिर सिर्फ कुछ लोगों के लिए क्यों ?”

हालांकि उन्हें मंदिर में प्रवेश नहीं मिला, लेकिन इस आंदोलन ने पूरे भारत को धार्मिक असमानता के खिलाफ सोचने पर मजबूर कर दिया।

“जाति का उन्मूलन” (Annihilation of Caste) – विचारों से विद्रोह

1936 में डॉ. अंबेडकर ने “Annihilation of Caste” नामक क्रांतिकारी निबंध लिखा, जिसमें उन्होंने हिन्दू समाज की जाति व्यवस्था की जड़ पर चोट की। उन्होंने कहा:

“जाति व्यवस्था को तोड़े बिना भारत कभी भी स्वतंत्र और न्यायपूर्ण समाज नहीं बन सकता।”

यह भाषण इतना तीखा था कि आयोजकों ने उन्हें बोलने से मना कर दिया, लेकिन अंबेडकर ने उसे स्वतंत्र रूप से प्रकाशित किया और लाखों लोगों तक पहुँचाया।

अंतिम विद्रोह – धर्म परिवर्तन की क्रांति (1956)

डॉ. अंबेडकर ने कहा था:

                      “मैं उस धर्म को छोड़ता हूँ जो इंसानों में भेदभाव करता है।”

14 अक्टूबर 1956 को उन्होंने लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म अपनाया। यह केवल धार्मिक परिवर्तन नहीं था, बल्कि सामाजिक आज़ादी की घोषणा थी।उन्होंने हमेशा यह कहा कि:

“जो समाज अपने ही लोगों को नीचा समझता है, वह कभी महान नहीं बन सकता।”

डॉ. भीमराव अंबेडकर : संविधान निर्माण क्रांति की कलम से

डॉ. भीमराव अंबेडकर
डॉ. भीमराव अंबेडकर

जब एक कलम ने करोड़ों को अधिकार दिया…

भारत की आज़ादी केवल ब्रिटिश हुकूमत से मुक्ति नहीं थी, बल्कि यह एक ऐसे देश की रचना थी, जहाँ हर नागरिक को समान अधिकार, न्याय और गरिमा मिले। इस नए भारत की नींव रखने वाले व्यक्ति थे – डॉ. भीमराव अंबेडकर, जिन्हें हम गर्व से भारत के संविधान निर्माता कहते हैं।

संविधान सभा में अंबेडकर की भूमिका

15 अगस्त 1947 को भारत आज़ाद हुआ और इसके बाद संविधान सभा का गठन हुआ। इस सभा में डॉ. अंबेडकर को ड्राफ्टिंग कमेटी (प्रारूप समिति) का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। यह एक ऐतिहासिक क्षण था – एक ऐसा व्यक्ति, जो कभी स्कूल में जमीन पर बैठता था, अब भारत के भविष्य का खाका तैयार कर रहा था।

“संविधान केवल कानूनों का संग्रह नहीं, बल्कि एक जीवित दस्तावेज़ है जो हर नागरिक के अधिकारों की रक्षा करता है।” – डॉ. अंबेडकर

संविधान निर्माण की चुनौतियाँ

संविधान बनाना कोई आसान काम नहीं था। भारत जैसे विविधताओं से भरे देश के लिए ऐसा संविधान लिखना था, जो सभी को स्वीकार्य हो – धर्म, जाति, भाषा, वर्ग, लिंग सभी को न्याय और समानता दे सके।

डॉ. अंबेडकर ने इन चुनौतियों को गंभीरता से लिया और दुनिया के कई देशों के संविधानों का अध्ययन किया – खासकर अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस और आयरलैंड के संविधान।

भारतीय संविधान की खास बातें (अंबेडकर की दृष्टि से)
  1. मौलिक अधिकार (Fundamental Rights):

    हर भारतीय को स्वतंत्रता, समानता, अभिव्यक्ति, धर्म और न्याय का अधिकार मिला – यह डॉ. अंबेडकर के विचारों की मूल आत्मा थी।

  2. समान नागरिकता:

    कोई भी व्यक्ति, चाहे वह किसी भी जाति या धर्म का हो, कानून की नज़र में समान है।

  3. आरक्षण व्यवस्था:

    वंचित वर्गों को शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण के जरिए मुख्यधारा में लाने का प्रयास – यह सामाजिक न्याय की दिशा में ऐतिहासिक कदम था।

  4. धर्मनिरपेक्षता:

    भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित करना – जहाँ हर धर्म का सम्मान हो, लेकिन राज्य किसी धर्म से प्रभावित न हो।

26 नवंबर 1949 – संविधान का अंगीकरण

डॉ. अंबेडकर की अध्यक्षता में तैयार किया गया भारतीय संविधान 2 साल, 11 महीने और 18 दिन में पूर्ण हुआ और 26 नवंबर 1949 को संविधान सभा द्वारा अंगीकृत किया गया।

26 जनवरी 1950 को यह संविधान लागू हुआ और भारत एक संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य बन गया।

डॉ. भीमराव अंबेडकर : चेतावनी

डॉ. भीमराव अंबेडकर
डॉ. भीमराव अंबेडकर

संविधान पारित होने के दिन डॉ. अंबेडकर ने एक ऐतिहासिक भाषण दिया, जिसमें उन्होंने कहा:

“हमने राजनीतिक समानता तो पा ली है, लेकिन जब तक सामाजिक और आर्थिक समानता नहीं मिलेगी, तब तक हमारी आज़ादी अधूरी रहेगी।”

आज जो हमें मौलिक अधिकार, समानता, शिक्षा, स्वतंत्रता और धर्मनिरपेक्षता जैसे मूल्य मिले हैं, उनका श्रेय डॉ. अंबेडकर को जाता है। वे भारत के संविधान के शिल्पकार थे और संविधान सभा की ड्राफ्टिंग कमेटी के चेयरमैन रहे।

उन्होंने ऐसा संविधान रचा, जो हर नागरिक को बराबरी का दर्जा देता है, चाहे वह किसी भी जाति, धर्म, लिंग या वर्ग से हो।

आज के भारत में बाबासाहेब का महत्व क्या है ?

डॉ. भीमराव अंबेडकर
डॉ. भीमराव अंबेडकर

समय बदला है, पर सवाल वही हैं …

जब हम डॉ. भीमराव अंबेडकर की बात करते हैं, तो अक्सर हमारा ध्यान उनके ऐतिहासिक योगदान – संविधान निर्माण, सामाजिक न्याय और दलित अधिकारों – पर जाता है। लेकिन सवाल यह है कि क्या बाबासाहेब आज भी प्रासंगिक हैं? क्या उनके विचार आज के भारत को दिशा दे सकते हैं? जवाब है – हां, पहले से कहीं ज़्यादा।

1. सामाजिक समानता की ज़रूरत अब भी बनी हुई है

हालांकि संविधान ने सभी को समान अधिकार दिए हैं, लेकिन जातिगत भेदभाव, अस्पृश्यता और सामाजिक बहिष्कार आज भी कई रूपों में मौजूद हैं – खासकर ग्रामीण क्षेत्रों और गरीब तबकों में।

बाबासाहेब का सपना था – “एक ऐसा भारत जहाँ कोई ऊँच-नीच न हो, सिर्फ इंसानियत हो।”

आज जब जातिगत हिंसा की घटनाएं सामने आती हैं, हमें उनके विचारों की याद दिलाई जाती है।

2. लोकतंत्र की रक्षा के लिए अंबेडकर जरूरी हैं

अंबेडकर ने कहा था :

“अगर हमें लोकतंत्र को जीवित रखना है, तो हमें सतर्क रहना होगा कि वह सिर्फ कागज पर न रहे, बल्कि व्यवहार में भी उतरे।”

आज जब लोकतंत्र पर सवाल उठ रहे हैं – मीडिया की स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की आज़ादी, चुनावी पारदर्शिता – ऐसे समय में अंबेडकर की चेतावनियाँ और भी ज़्यादा महत्वपूर्ण हो जाती हैं।

3. शिक्षा को बदलाव का साधन मानना

बाबासाहेब ने कहा था :

“शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो।”

आज की शिक्षा प्रणाली में गुणवत्ता की कमी, समान अवसरों की कमी और डिजिटल डिवाइड जैसी चुनौतियाँ मौजूद हैं। अंबेडकर का यह विचार कि “शिक्षा ही असली क्रांति है”, आज भी हमें आगे बढ़ने की राह दिखाता है।

4. महिलाओं के अधिकारों की रक्षा

डॉ. अंबेडकर स्त्री-स्वतंत्रता के भी बड़े समर्थक थे। उन्होंने हिंदू कोड बिल लाने का प्रयास किया ताकि महिलाओं को संपत्ति, तलाक और गोद लेने जैसे अधिकार मिल सकें।

आज जब महिला सुरक्षा, समान वेतन और सामाजिक सम्मान की बातें हो रही हैं, बाबासाहेब का स्त्री अधिकारों पर जोर देना बेहद प्रासंगिक बनता है।

5. धर्म और समाज के बीच संतुलन की जरूरत

अंबेडकर ने धर्म को इंसान की गरिमा से जोड़ा। उन्होंने धर्म के नाम पर होने वाले भेदभाव को नकारते हुए कहा:

“जो धर्म इंसान की बराबरी नहीं करता, वह धर्म नहीं हो सकता।”

आज के भारत में जब धर्म और राजनीति के नाम पर सामाजिक टकराव बढ़ रहा है, अंबेडकर की “धर्म और मानवता के बीच संतुलन” की सोच ज़रूरी हो गई है।

6. युवाओं के लिए आदर्श

अंबेडकर की कहानी हर उस युवा के लिए प्रेरणा है जो विपरीत परिस्थितियों में जी रहा है। उन्होंने सिखाया कि:

  • कभी हार मत मानो

  • सोचो, समझो और सवाल करो

  • समाज के लिए सोचो, सिर्फ खुद के लिए नहीं

आज जब समाज जाति, वर्ग और भेदभाव से जूझ रहा है, अंबेडकर के विचार और भी प्रासंगिक हो जाते हैं। उनके विचार हमें जागरूक नागरिक, न्यायप्रिय समाज और समान अवसरों वाला भारत बनाने की प्रेरणा देते हैं।

निष्कर्ष :

14 अप्रैल केवल एक जन्मतिथि नहीं, बल्कि संघर्ष से सफलता तक की प्रेरणादायक यात्रा की याद है। बाबासाहेब ने न केवल अपना जीवन संघर्षों में जिया, बल्कि दूसरों के लिए रास्ते भी खोले। आज उनकी जयंती पर हमें यह संकल्प लेना चाहिए कि उनके सपनों का भारत – एक समान, समतामूलक और न्यायप्रिय समाज – हम सब मिलकर बनाएँगे।

डॉ. भीमराव अंबेडकर की कलम ने भारत को सिर्फ एक संविधान नहीं दिया, बल्कि एक नई चेतना, एक नया आत्मसम्मान और एक नया रास्ता दिया। उन्होंने यह साबित कर दिया कि कलम की ताकत तलवार से कहीं ज्यादा होती है।

आज जब हम लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, और समान अधिकारों की बात करते हैं, तो उसके मूल में अंबेडकर की दूरदर्शिता और मेहनत छुपी होती है।

आज हमें उनकी सिर्फ तस्वीरें नहीं चाहिए, हमें उनकी विचारधारा को अपनाना होगा।

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 – टीम Know Your Duniya

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